बहुत पुरानी बात है ,,,सुवर्णा नाम की बहुत सुन्दर वेश्या थी, उसकी सुन्दरता पर कई राजा महाराजा मोहित थे ,,,उनका हुक्म वहां न चलता था ,,,,बल्कि वह उस सुवर्णा को प्रसन्न करने का नित्य प्रयास करते ,,,,सुवर्णा ,,,,के नित्य कई धनी कुबेर राजा हाजिर रहते ,,,,,और सुवर्णा थी सुन्दर और उसके नखरे वह किसी को रात को चुनले तो वह अपने को दुनिया का बादशाह समझ लेता था ,,,,अथाह दौलत लुटाते थे उस पर ,,,,,,,
,,,,,,,एक दिन सुवर्णा ने, ,,,,अपनी खिड़की से देखा कि एक आकर्षक नवयुवक सन्यासी उसके द्वार खड़ा होकर भिक्षा के लिए पुकार रहा है ,,,,सुवर्णा ने उसे देखा और उस पर मोहित हो गई ,,,,,,वह खुद दौड़ कर नीचे आई और उस सन्यासी से कहा आप क्या चाहते हो ,,,,,,,,,,
देवी भिक्षा ,,,,,,
हम तुम्हें यह अपना सारा महल देते हैं आप यहीं रहो,
देवी ,यह प्रासाद हम क्या करेंगे हमें तो बस दो रोटी यदि भिक्षा में दे सको तो हमारी क्षुधा के लिए पर्याप्त है
सुवर्णा आसक्त हो चुकी थी ,,,आप जानते हैं हम पर कई राजा महाराजा मोहित हैं ,,,लेकिन हम आप से प्रेम करने लगे हैं ,,,हम आपसे निवेदन करते हैं ,,,आप हमारे साथ रहें,और ऐसे कहाँ कहाँ रोज दर दर भटकोगे ,रोज रोज भिक्षा मांगोगे ,,,मैं वचन देती हूँ ,तुम्हें कोई कष्ट न होने पायेगा ,,,मानो हमारी बात हम आप से सच्चा प्रेम करते हैं
,,,,युवक सन्यासी हंसने लगा और उसने कहा ,,,,,,,,,,देवी हम कहाँ भटक रहे हैं ,,हम तो विचरण करते हैं ,,,,और हमें तो सदा आनंद है ,,हमें कष्ट कहाँ है ,,,और देवी जिस दिन भिक्षा नहीं मिलती उस दिन भी आनंदित रहते हैं ,,,,प्रभु और याद आते हैं ,,,और आनंद बढता है ,,,,,,और आप हमें प्रेम करती है, हम भी करते हैं ,लेकिन देवी जब हमें पुकारोगी जब इन प्रेमियों के प्रेम में कमी पाओगी तो हमें याद करना हम जरुर आएंगे ,,,और हम तो पूरे जगत से प्रेम करते हैं, तुम भी जगत में ही हो ,,,,अब हम चलते हैं जब भी अपने को अकेला और लाचार पाओ हमें याद करना हम जरुर आयेंगे
यह कह युवक सन्यासी वहां से भिक्षा ले चल दिया
,,,,,दिन बीतते गए, सुवर्णा अपने भोगविलास में लीन उस युवक को भूल गई ,,,,,और एक दिन सुवर्णा ने देखा उसके शरीर के अंग पर एक दाग है ,उसने वैद्य को बुलवाया ,और वैद्य ने उसे कोड बता दिया ,,,,,सुवर्णा ,चिंतित हो गई ,उसने वैद्य से चिकित्सा शुरू करवा दी लेकिन धीरे धीरे रोग बढता गया ,,घाव रिसने लगे ,और यह खबर भी उसके चाहने वालों में फैलती गई ,,,चिकत्सा में धन भी खर्च होता गया ,,,,लोगों ने आना छोड़ दिया ,,,,घर के नौकर भी घर छोड़ चले गए ,,,,,,,,,,,,अब शरीर गलता जा रहा था ,अकेलापन बढता जा रहा था ,,,,भरी दोपहर थी उसे प्यास लगी थी,और पानी देने वाला कोई न था उसकी स्मृति में युवक सन्यासी की बात याद आ गई ,,उसने कहा था ,कि जब पुकारोगी आ जाऊँगा ,,,एक आह भरी और याद किया ,,,,,,,इतने में आहट हुई किसी ने पुकारा ,,उससे उठा न गया ,,,,,वहीँ से पुकारा चले आओ द्वार खुला है ,,जहाँ द्वार पर दरबान रहा करते थे वहां कोई द्वार खोलने वाला भी नहीं था
सुवर्णा ,हैरान हो गई ,,वही युवक सन्यासी हाथ में खप्पर [ भिक्षा पात्र ] में पानी लिए उसकी और आ रहा है ,,,,,,,,
सन्यासी अब युवा तो न था ,,लेकिन परिपक्व था ,,,उसने सुवर्णा को जल पिलाया ,,,सुवर्णा की नेत्रों से जलधार फूट रही थी ,,सन्यासी ने उसके घावों को को औषधि से साफ कर धोया और उसे भोजन बना कर दिया,,,,
सुवर्णा ने सन्यासी से कहा ऐसे में जब मेरे पास कुछ नहीं है, आप को मैं क्या दे सकती हूँ
देवी ,तुमने कहा था कि मुझसे प्रेम करती हो शायद वह आकर्षण देह का था ,किन्तु मैं सिर्फ प्रेम करता हूँ मुझे सबसे प्रेम है ,और आज तुम कष्ट में हो तो मैं तुम्हारे पास हूँ ,,,,,और एक दिन तुम्हारी भिक्षा से मेरी क्षुधा शांत हुई थी तो मेरा भी दायित्व है कि मैं उरिन हो जाऊं अतः अब मुझे सेवा करने दें
कहते हैं, सन्यासी की सेवा से उसके बाकि जीवन के कष्ट कम हो गए ,,,और कुछ साल बाद उसकी मृत्यु हो गई ,,,और सन्यासी फिर से अपनी कन्दरा में चला गया ,,
,,,,,,,एक दिन सुवर्णा ने, ,,,,अपनी खिड़की से देखा कि एक आकर्षक नवयुवक सन्यासी उसके द्वार खड़ा होकर भिक्षा के लिए पुकार रहा है ,,,,सुवर्णा ने उसे देखा और उस पर मोहित हो गई ,,,,,,वह खुद दौड़ कर नीचे आई और उस सन्यासी से कहा आप क्या चाहते हो ,,,,,,,,,,
देवी भिक्षा ,,,,,,
हम तुम्हें यह अपना सारा महल देते हैं आप यहीं रहो,
देवी ,यह प्रासाद हम क्या करेंगे हमें तो बस दो रोटी यदि भिक्षा में दे सको तो हमारी क्षुधा के लिए पर्याप्त है
सुवर्णा आसक्त हो चुकी थी ,,,आप जानते हैं हम पर कई राजा महाराजा मोहित हैं ,,,लेकिन हम आप से प्रेम करने लगे हैं ,,,हम आपसे निवेदन करते हैं ,,,आप हमारे साथ रहें,और ऐसे कहाँ कहाँ रोज दर दर भटकोगे ,रोज रोज भिक्षा मांगोगे ,,,मैं वचन देती हूँ ,तुम्हें कोई कष्ट न होने पायेगा ,,,मानो हमारी बात हम आप से सच्चा प्रेम करते हैं
,,,,युवक सन्यासी हंसने लगा और उसने कहा ,,,,,,,,,,देवी हम कहाँ भटक रहे हैं ,,हम तो विचरण करते हैं ,,,,और हमें तो सदा आनंद है ,,हमें कष्ट कहाँ है ,,,और देवी जिस दिन भिक्षा नहीं मिलती उस दिन भी आनंदित रहते हैं ,,,,प्रभु और याद आते हैं ,,,और आनंद बढता है ,,,,,,और आप हमें प्रेम करती है, हम भी करते हैं ,लेकिन देवी जब हमें पुकारोगी जब इन प्रेमियों के प्रेम में कमी पाओगी तो हमें याद करना हम जरुर आएंगे ,,,और हम तो पूरे जगत से प्रेम करते हैं, तुम भी जगत में ही हो ,,,,अब हम चलते हैं जब भी अपने को अकेला और लाचार पाओ हमें याद करना हम जरुर आयेंगे
यह कह युवक सन्यासी वहां से भिक्षा ले चल दिया
,,,,,दिन बीतते गए, सुवर्णा अपने भोगविलास में लीन उस युवक को भूल गई ,,,,,और एक दिन सुवर्णा ने देखा उसके शरीर के अंग पर एक दाग है ,उसने वैद्य को बुलवाया ,और वैद्य ने उसे कोड बता दिया ,,,,,सुवर्णा ,चिंतित हो गई ,उसने वैद्य से चिकित्सा शुरू करवा दी लेकिन धीरे धीरे रोग बढता गया ,,घाव रिसने लगे ,और यह खबर भी उसके चाहने वालों में फैलती गई ,,,चिकत्सा में धन भी खर्च होता गया ,,,,लोगों ने आना छोड़ दिया ,,,,घर के नौकर भी घर छोड़ चले गए ,,,,,,,,,,,,अब शरीर गलता जा रहा था ,अकेलापन बढता जा रहा था ,,,,भरी दोपहर थी उसे प्यास लगी थी,और पानी देने वाला कोई न था उसकी स्मृति में युवक सन्यासी की बात याद आ गई ,,उसने कहा था ,कि जब पुकारोगी आ जाऊँगा ,,,एक आह भरी और याद किया ,,,,,,,इतने में आहट हुई किसी ने पुकारा ,,उससे उठा न गया ,,,,,वहीँ से पुकारा चले आओ द्वार खुला है ,,जहाँ द्वार पर दरबान रहा करते थे वहां कोई द्वार खोलने वाला भी नहीं था
सुवर्णा ,हैरान हो गई ,,वही युवक सन्यासी हाथ में खप्पर [ भिक्षा पात्र ] में पानी लिए उसकी और आ रहा है ,,,,,,,,
सन्यासी अब युवा तो न था ,,लेकिन परिपक्व था ,,,उसने सुवर्णा को जल पिलाया ,,,सुवर्णा की नेत्रों से जलधार फूट रही थी ,,सन्यासी ने उसके घावों को को औषधि से साफ कर धोया और उसे भोजन बना कर दिया,,,,
सुवर्णा ने सन्यासी से कहा ऐसे में जब मेरे पास कुछ नहीं है, आप को मैं क्या दे सकती हूँ
देवी ,तुमने कहा था कि मुझसे प्रेम करती हो शायद वह आकर्षण देह का था ,किन्तु मैं सिर्फ प्रेम करता हूँ मुझे सबसे प्रेम है ,और आज तुम कष्ट में हो तो मैं तुम्हारे पास हूँ ,,,,,और एक दिन तुम्हारी भिक्षा से मेरी क्षुधा शांत हुई थी तो मेरा भी दायित्व है कि मैं उरिन हो जाऊं अतः अब मुझे सेवा करने दें
कहते हैं, सन्यासी की सेवा से उसके बाकि जीवन के कष्ट कम हो गए ,,,और कुछ साल बाद उसकी मृत्यु हो गई ,,,और सन्यासी फिर से अपनी कन्दरा में चला गया ,,
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