सोमवार, 13 जून 2011

छत हुआ नहीं करती

पहेलियाँ बुझाने से
जिंदगी नहीं चला करती
पत्थरों की कोई
नाव नहीं हुआ करती
उठ चल कि बैठे बैठे
मंजिल मिला नहीं करती

कह दो उन शेरों को
अब जंगल में रहें
या चले आयें शहर
मौत की कोई जगह
तय हुआ नहीं करती
धुआं कहीं भी उठे
दिल की आग
दिखा नहीं करती

पौंच कर आंसू किसी के
कोई तुम्हे तसल्ली नहीं होती
अपने ही रंग से क्यों
रंगते हो दुनिया
क्या और रंगों में
तहजीब नहीं होती

अपनी आजादी कायम रहे
ये किसी पाबन्दी से
हासिल हुआ नहीं करती
कसमे न उठाओ झूठी
किताबों को रख हाथ
कद्र सच की कभी
घटा नहीं करती

बादलों गरजो या बरसो
फटा मत करो
कि गरीबों के सर
छत हुआ नहीं करती

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