रविवार, 12 जून 2011

खुद को जानने को

***,,
खुद को जानने को
मैं कहाँ कहाँ भटका
जरा अपने टूटे हुए
शीशे को न देखा
खंड खंड होता हुआ
बिखरी हुई तस्वीर
जोड़ने का साहस न हुआ
अमानत था एक ही था
जब तूने दिया ,
अब क्या करूँ
टूट गया ,कैसे हुआ
तुम जानते हो न
दिल ही तो है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें