शनिवार, 4 जून 2011

बिकते हैं फूल, कांटे नहीं बिकते

खारों को मुझे देदो
मैं तैयार हूँ लेने को ,,,
इन्होने चुराई है खुशबु  फूलों से  ,,,,
मंदिर तो नहीं गए
और न किसी की मौत का
इन्हें कभी कोई मलाल
मुर्दे पर फूल ही
रोते हुए गए देखे गए

इन्हें कोई तहजीब नहीं
कभी मंदिर न मस्जिद
न गुरुद्वारे ही जाते
मुस्कुराना कभी न आया इन्हें
फूलों से की दोस्ती
पर, न गम में किसी के
फूलों के जैसे मुरझाये

अब जब सोचता हूँ ,
इन खारों ने क्या
कभी कुछ न किया
कोई मसल न दे डाल पर ही फूलों को
क्या उन्हें रोकते नहीं
और चुभ गए किसी को
फिर भी ,क्या
कांटे से कांटा ही निकलता नहीं

ये मजबूर हैं कांटे हैं
ये खुद कभी चुभेंगे, ऐसा नहीं
मत जाओ न इनके पास
न चुराओ कोई फूल डाली से
ये चौकीदार हैं ये जानते हैं
अपना काम,,इन्हें कोई
रिश्वत से न खरीदोगे
बिकते हैं फूल, कांटे नहीं बिकते
इनके दाम कोई लगाता नहीं
इनका हुस्न किसी को भाता नहीं
ये ईमानदारी की औलाद हैं
बेईमानो की आँख में चुभते हैं










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